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कविता

तुम्हें खेलना नहीं आता

शैलेंद्र कुमार शुक्ल


खिड़की पर आई है
एक छोटी चिड़िया
मुझे डाटने के लिए

कल पेड़ ने गिरा दिया
मेरे ऊपर एक पका हुआ फल
और हँसने लगा

एक लड़की जो निमकौड़ियों के गुच्छों से
पहनी है हार, नथ और पायलें
मेरे कंधे हिलाते हुई बोली
तुम्हें खेलना नहीं आता

मुंडेर पर घर की आया है
एक कौवा चिल्लाता हुआ
शायद कह रहा है कुछ माँ से

गाँव का सबसे बूढ़ा आदमी
खाँस रहा है खटिया पर
माँग रहा है एक लोटिया पानी मुझसे
शायद इस गाँव में मैं ही बचा हूँ अकेला
और सब शहर की तरफ देख रहे हैं
टकटकी लगाए
डरे हुए
सहमे हुए।


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